बारहवीं का परिणाम आते ही हम देश के अलग-अलग कॉलेज/विश्वविद्यालय के बारे में ढेर सारा शोध करने लग जाते हैं। अपने-अपने ग्रुप्स में हम एक दूसरे से चर्चा करते हैं कि कौन कहाँ एडमिशन लेने के बारे में सोच रहा है, कॉलेज में एडमिशन लेने से पहले सबके मन में कई तरह के सपने होते हैं। हममें से ज्यादातर ये सोचते हैं कि कॉलेज जाकर ये करना है, वो करना है। मौज-मस्ती के खयाली पुलाव की हांडी चढ़ाई जाती है। स्कूल के दिनों की मस्तियाँ तो यादगार होती ही हैं, मगर कॉलेज के यादगार लम्हें हमें आजीवन याद रहते हैं। यही वो समय होता है जब हम खुल कर हर बात पर अपनी राय रखने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। क्लास बंक करके कॉलेज की कैंटीन में बैठ कर मटरगश्ती करते नहीं थकते। साथ ही हम अपने भविष्य को लेकर भी सचेत होते हैं, जिसके निर्माण में यही कॉलेज एक निर्णायक आधार साबित होता है।
किसी भी इंसान के व्यक्तित्व के निर्माण में उसके कॉलेज के दिन बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तो फिर आज बात उन्हीं दिनों की, जिनकी गोद में बैठ हम अपने एकांत में झूला झूलते हैं।
कैंटीन। कॉलेज का वो हिस्सा जहाँ हमारी यादों का पिटारा टँगा होता है। अब चाहे लंच का समय हो या फिर किसी लेक्चर से कान बचा कर कमाये हुए समय को खर्च करने की बात हो। हर वक्त का साथी। यही कैंटीन।
आपको एक ऐसा ही वाकया सुनाता हूँ; जो मेरे साथ कॉलेज में हुआ था। तब मैं एस.आर.एम. चेन्नई से बी.टेक. कर रहा था। मेरी डिग्री का पहला साल। एक लेक्चर से कान बचा कर मैं और मेरे तीन दोस्त कैंटीन में बैठे हुए थे। अचानक हमारे पास आकर दो लड़के खड़े हो गये। उनके आई.डी. कार्ड से हमें समझ आ गया कि वे सीनियर हैं। हमारी साँसें ऊपर-नीचे होने लगी। हम सोचने लगे, अब तो हमारी खैर नहीं। मगर उन्होंने पास आते ही हमें समोसा ऑफर किया और हमसे हँसते हुए पूछा - 'कैसा लग रहा है, लेक्चर बंक करके?' हमने राहत की साँस ली और जोर से हँस पड़े।
ऐसी कई यादों को संजोये रखने में हमारे कॉलेज का कैंटीन माहिर होता है। आप भी इन यादगार लम्हों को खुलकर जीने में अपना समय खर्च कीजिएगा। आखिर में ये भी तो आपके कॉलेज के दिनों में आपकी कमाई का एक हिस्सा होगा। जिसे आप अपने बुढ़ापे के दिनों में याद कर मुस्कुरायेंगे।
सेकंड ईयर में जाते ही, फर्स्ट ईयर स्टूडेंट्स के प्रति एक अलग आकर्षण का भाव आ जाता है। हम उनसे एक अलग ही जुड़ाव महसूस करने लगते हैं। शायद उनमें हम अपना अक्स तलाशते हैं। इसलिए उनके प्रति हम कुछ ज्यादा आकर्षित होते हैं।
फ्रेशर्स (फर्स्ट ईयर के) लड़कियों के प्रति भी हमारे दिल में एक सॉफ्ट कार्नर होता है। अब ऐसा किस वजह से होता है; इसे ठीक-ठीक बयान कर पाना मुश्किल है। चाहे जो भी हो ऐसा माहौल (जिसमें आपकी जूनियर्स से आपकी पहली मुलाकात प्रेम में तब्दील हो जाए या उनसे दोस्ती करने के लिए आप लालायित हों) आपको भी अपने कॉलेज में मिले तो आपको कितना मजा आएगा। हमारे कॉलेज में तो हमेशा
से ऐसा ही होता आया है।
फर्स्ट ईयर स्टूडेंट्स और सीनियर्स के बीच ऐसे दोस्ताना रिश्ते आपको हर कॉलेज में देखने को मिले इसमें मुझे संदेह है।
कॉलेज की कैंटीन में, कहीं किसी स्टेज पर गिटार पर, दिलवाले दुल्हनियाँ ले जायेंगे की ट्यून बजाई नहीं कि लड़की दीवानी हो गई। एक गाना गाया और प्रपोजल स्वीकार। मैंने अपने कई दोस्तों को ऐसा करते देखा। देखकर मैं अवाक्! ये क्या है, गुरु!
हमने भी बड़े जोश में एक प्यारा मगर सस्ता गिटार खरीदा और उन्हीं में से एक को अपना लव गुरु मान लिया। तो क्लास शुरू। मगर संगीत से तो मेरा छत्तीस का आँकड़ा था, गुरु। दो दिन में ही टाँय-टाँय फिस्स हो गया। उसके बाद से कभी गिटार को हाथ नहीं लगाया।
गिटार को क्या, एक सबक ले लिया कि जिसमें दिलचस्पी न हो, उसमें उँगली नहीं करना है।
आज जब भी उन दिनों को याद करता हूँ तो मेरी हँसी छूट जाती है। अगर आप कॉलेज जाने के मुहाने पर खड़े हैं तो बेहतर होगा इसे अच्छे से समझ लें। गुरु, प्रेम होना होगा तो बिना गिटार के भी हो जाएगा; जैसा मुझे हुआ और कसम उड़ान झल्ले की, बहुत हसीन शादीशुदा जीवन जी रहा हूँ।
यही तो होता है जीवन जीने का फलसफा। इससे अलग और क्या? हम-आप सभी ऐसा ही तो चाहते होंगे। है न?
कॉलेज के दिन में वीकेंड पर या रातों में बाइक लेकर लॉन्ग राइड पर निकल जाना। रास्ते में ढेर सारी मस्तियाँ करते जाना। ऐसा करने का एक अलग ही एहसास होता था। आज भी वो दिन याद आते हैं। काश, कॉलेज के वे दिन फिर से लौट आएं!
लाइब्रेरी में ज्यादातर लड़के-लड़कियाँ पढ़ने ही जाया करते थे। मगर मैं और मेरे दोस्त लाइब्रेरी में पढ़ने नहीं बल्कि मूवी डाउनलोड करने जाते थे। चूँकि हमारे हॉस्टल के इंटरनेट की स्पीड में और लाइब्रेरी के इंटरनेट की स्पीड में जमीन और आसमान का फर्क था; तो हम इस फर्क को पाट तो नहीं पाते मगर फिर भी लाइब्रेरी जाकर कुछ समय के लिए ही सही ज्यादा स्पीड का लुफ्त उठा लिया करते थे।
मूवी डाउनलोड करना। घंटों बैठ कर दोस्तों के साथ बतियाना। विदेशी विद्यार्थियों से इंग्लिश में बातें करना। अहा! क्या खुशनुमा दिन हुआ करते थे। हमारे कॉलेज में कई देशों के स्टूडेंट्स पढ़ने आया करते। लिहाजा लाइब्रेरी भी अलग-अलग देशों की संस्कृति का संगम हुआ करती थी। कितनी सुनहरी यादें हैं!
मेरे ज्यादातर दोस्तों की कोई न कोई गर्लफ्रेंड थी। कोई भी फिल्म देखने जाता तो अपनी-अपनी गर्लफ्रेंड्स के साथ ही जाना पसंद करता। हम और कुछ-एक दोस्त ही अकेलेपन के मारे, बेचारे थे! खैर इसके भी अपने फायदे हैं।
जिनकी गर्लफ्रेंड हुआ करती थी। वे हमारे साथ ज्यादातर मस्तियों का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते थे। आखिर उन्हें फोन से फुर्सत मिले तब न! खैर उनके लिए वो ज्यादा सुकून भरा होता था। हम तो दिल बहलाने को एक खयाल भर पाल बैठे थे। आखिर कौन अभागा नहीं चाहेगा कि उसकी कोई महिला मित्र हो, जिसके साथ वो अपनी बातें साझा कर सके, क्लास बंक करके कॉलेज कैंटीन में बैठ गप्पे लड़ा सके, मूवी देखने का आनंद ले सके।
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